श्रृंगार रस को प्राचीन काल में सौन्दर्य शास्त्रियों ने बड़े विस्तृत विवरण व उत्साह के साथ अपने लेखों व कविताओं में वर्णन किया है। इसे राजाओं की भावनाओं के साथ जोड़ा गया है तथा इसे रसों का राजा कहा गया है। कला में श्रंृगार रस को एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। साहित्य में भी श्रृंगार रस 7वीं शताब्दी से ही दृष्टिगोचर होता है। श्रृंगार का स्थाई भाव प्रेम है। भरत मुनि के अनुसार प्रेम विभाव तब उत्पन्न होता है जब प्राणी मात्र के अन्दर प्रेम का भाव अथवा विचार उत्पन्न होता है। ऋतुओं में बदलाव फूलों या गहनों की खुशी इसके मुख्य आकर्षण है। प्रेम का अनुभव हम नेत्रों की हलचल, दृष्टि, अंगों की नाजुक हलचल या झुकाव और मीठे स्वर आदि के द्वारा कर सकते हैं। श्रृंगार रसर सबसे ज्यादा प्रभावशाली रस है, श्रृंगार रस अत्याचार, डर की भावना और धोखेबाजी से दूर रखता है। भारतीय कला में प्रेम दर्शाती मूर्ति की अभिव्यंजना पत्थरों पर जितनी काव्यात्मकता एवं आ/यात्मिकता के साथ दर्शाई गई है। शायद ही संसार में इसका उदाहरण कहीं और हो इसके उदाहरण भरहूत, सांची से लेकर खजुराहो, कोणार्क, अजन्ता तथा पहाड़ी लघुचित्रों में देखने को मिलते हैं। भारतीय कला में धर्म का स्थान सर्वोपरि रहा है इसी कारण भारतीय कला सदा ही धार्मिक रही है। भारतीय कलाकारों का मुख्य उद्देश्य सूक्ष्म धार्मिक भावनाओं को स्थूल आ/यात्मिक रूप देना था इन्हीं भावों को सुशोभित करने की कला बौद्ध युग में भी देखने को मिलती है।
शब्दकोशः भारतीय कला, चित्रकला, श्रृंगारिक अभिव्यक्ति, काव्यात्मकता, आ/यात्मिकता।