अपोहवाद के अनुसार, शब्द का अर्थ किसी वस्तु की सकारात्मक उपस्थिति से नहीं, बल्कि उससे भिन्न वस्तुओं के निषेध से निश्चित होता है। जैसे ’गौः’ शब्द का अर्थ किसी सार्वभौमिक ’गायत्त्व’ से नहीं, बल्कि ’अ-गौ’ (घट, वृक्ष, अश्व आदि) के निषेध से उत्पन्न होता है। यह विचार परंपरागत जातिवाद या वस्तुनिष्ठ अर्थ-सत्ता के सिद्धांत से भिन्न है, और इसे बौद्ध चिन्तन में सापेक्षता, क्षणिकत्व, तथा निर्वचनातीतता जैसे सिद्धांतों के अनुरूप प्रस्तुत किया गया है। शांतरक्षित, जो मा/यमिक और योगाचार दर्शन के समन्वयक माने जाते हैं, ने अपोहवाद को व्यवहार की दृष्टि से सम्वृति-सत्य के रूप में स्थापित किया। उन्होंने स्वीकार किया कि शब्द व्यवहार को संभव बनाते हैं, पर वे परमार्थ में कोई अन्तर्निहित सत्ता नहीं दर्शाते। उनके ग्रंथ तत्त्वसङ्ग्रह में अपोह की तात्त्विक और तार्किक विवेचना गहराई से की गई है। वहीं रत्नकीर्ति, जो उत्तरवर्ती बौद्ध तर्कशास्त्र के अत्यन्त प्रभावशाली आचार्य रहे, ने अपोह को भाषा के एकमात्र यथार्थ आधार के रूप में प्रस्तुत किया और जातियों, सामान्यताओं व नित्यत्व की धाराओं का दृढ़ प्रतिवाद किया। शोध में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि अपोहवाद केवल एक भाषिक सिद्धांत नहीं है, बल्कि यह ज्ञान-उत्पत्ति, अर्थ-निर्धारण और सत्यता के मापदंडों को भी पुनःपरिभाषित करता है। यह दृष्टिकोण आधुनिक चिन्तन प्रवृत्तियों जैसे संरचनावाद, प्रत्ययवाद, और डेरिडा के विघटन (क्मबवदेजतनबजपवद) सिद्धांत से भी मेल खाता है। लेख में यह दर्शाया गया है कि जहाँ शांतरक्षित समन्वयवादी थे और अपोह को व्यवहार की सीमा तक मान्यता देते थे, वहीं रत्नकीर्ति विशुद्ध तार्किक थे और उन्होंने नकारात्मक परिभाषा को ही ज्ञान का मूल आधार माना। दोनों का समन्वय बौद्ध तर्कशास्त्र को उतर- यथार्थवादी (च्वेज - त्मंसपेज) विमर्श की दिशा में अग्रसर करता है।
शब्दकोशः अपोहवाद, शांतरक्षित, रत्नकीर्ति, शब्द-अर्थ-संबंध, भाषा-दर्शन, बौद्ध ज्ञानमीमांसा, तात्त्विक निषेध, सम्वृति-सत्य, जाति-निषेध।