बीकानेर का ऐतिहासिक परिदृश्य प्रायः उसकी राजसी विरासत, किलों, हवेलियों और मंदिरों के भव्य स्थापत्य से पहचाना जाता है, किन्तु इन अद्भुत संरचनाओं और कलात्मक परंपराओं के निर्माण में जिन शिल्पकारों, कारीगरों और दस्तकारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, वे इतिहास के औपचारिक लेखन से लगभग अनुपस्थित हैं। यह शोध-पत्र बीकानेर के शिल्पकार और कारीगर वर्ग के योगदान को सबऑल्टर्न इतिहास लेखन के दृष्टिकोण से पुनः स्थापित करने का प्रयास करता है। इसमें लोक परंपराओं, स्मृति-आधारित आख्यानों, शिल्प-केंद्रित कलाओं और स्थापत्य तकनीकों के माध्यम से उन समुदायों की भूमिका का अध्ययन किया गया है, जिन्हें पारंपरिक इतिहास लेखन में हाशिए पर रखा गया। यह शोध यह रेखांकित करता है कि बीकानेर की सांस्कृतिक गरिमा और कलात्मक विविधता का वास्तविक निर्माण श्रमजीवी वर्गों के योगदान से संभव हो पाया, किंतु उन्हें कभी नायक के रूप में स्वीकार नहीं किया गया। इस शोध में विशेष रूप से बढ़ई, लोहार, राजमिस्त्री, चित्रकार, नक्काशीकार, कसीदाकारी करने वाले, कपड़ा रंगने वाले (रंगरेज़) और अन्य कारीगर समुदायों की सामाजिक संरचना, तकनीकी दक्षता तथा सांस्कृतिक उपस्थिति का विश्लेषण किया गया है। इनके द्वारा निर्मित कृतियों को महज कला या उपयोगिता की वस्तु नहीं, बल्कि सामाजिक इतिहास के दस्तावेज़ के रूप में देखा गया है। यह शोध न केवल बीकानेर की शिल्प परंपरा को दस्तावेज करता है, बल्कि यह भी इंगित करता है कि आधुनिकता और बाजारवादी प्रवृत्तियों के प्रभाव से कैसे इन परंपराओं में ह्रास हुआ है। अंततः यह शोध उपेक्षित समुदायों की स्मृति, परंपरा और योगदान को पुनर्परिभाषित कर, बीकानेर के इतिहास को अधिक समावेशी और बहुआयामी दृष्टिकोण से समझने की दिशा में एक प्रयास है।
शब्दकोशः शिल्पकार, कारीगर, सबऑल्टर्न, हस्तकला, इतिहास।