यह शोध आलेख छठी शताब्दी ईसा पूर्व के भारतीय दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में आजीवक मत की भूमिका को विश्लेषित करता है, जो उस काल की श्रमण परंपरा में एक विशिष्ट किन्तु उपेक्षित विचारधारा रही है। मक्खलि गोसाल द्वारा प्रतिपादित आजीवक दर्शन का मूल आधार नियतिवाद (क्मजमतउपदपेउ) था, जो यह मानता था कि संसार की समस्त घटनाएँ पूर्व निर्धारित हैं और मनुष्य का कर्म या प्रयास उसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकता। यह दृष्टिकोण उस समय के बौद्ध, जैन और वैदिक कर्मवाद से भिन्न और विरोधी था। इस आलेख में आजीवकों के प्रमुख विचारों, उनके चिंतकों, तथा छठी शताब्दी ई.पू. में उनके बौद्धिक प्रभाव का विस्तार से विवेचन किया गया है। साथ ही यह भी विश्लेषण किया गया है कि किस प्रकार उन्हें धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक कारणों से इतिहास में हाशिए पर डाल दिया गया। आलेख यह तर्क प्रस्तुत करता है कि जैसे यूनानी दर्शन में उपेक्षित मतों का पुनर्मूल्यांकन हुआ, वैसे ही आजीवक मत को भी भारतीय दार्शनिक इतिहास में स्थान मिलना चाहिए। यह न केवल दार्शनिक बहुलता की रक्षा है, बल्कि आधुनिक नैतिक विमर्शों के लिए भी प्रासंगिक है।
शब्दकोशः आजीवक मत, मक्खलि गोसाल, नियतिवाद, श्रमण परंपरा, दार्शनिक बहुलता, दार्शनिक पुनर्मूल्यांकन, कर्मवाद, नियति बनाम स्वतंत्र इच्छा।