यह शोध प्रबंध राजस्थान की लोकसांस्कृतिक परंपराओं में विशिष्ट स्थान रखने वाली ढोली जाति के ऐतिहासिक विकास, सामाजिक संरचना, सांस्कृतिक योगदान और वर्तमान स्थिति का एक समग्र एवं विश्लेषणात्मक अ/ययन प्रस्तुत करता है। ढोली जाति, मुख्यतः वाद्य यंत्रों और लोकगायन की परंपरा से जुड़ी एक पारंपरिक जाति रही है, जो विशेष रूप से राजस्थानी लोकगीत, वीरगाथाएँ, पंथी गान, तथा शादी-ब्याह के मांगलिक गीतों की प्रस्तुति में निपुण रही है। शोध में ढोली जाति की उत्पत्ति, सामाजिक वर्गीकरण, राजस्थानी दरबारों और ग्रामीण समाज में उनकी भूमिका, तथा बदलते समय में उनके पेशे और सामाजिक प्रतिष्ठा में आए परिवर्तनों का विश्लेषण किया गया है। इतिहास के साथ-साथ यह अ/ययन लोक साहित्य, मौखिक परंपराओं, वाद्य वादन कला और सांस्कृतिक उत्तराधिकार के संरक्षण में ढोली जाति की भूमिका को रेखांकित करता है। शोध के निष्कर्ष दर्शाते हैं कि ढोली जाति ने राजस्थान की सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। किन्तु आधुनिक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों, तकनीकी विकास और सांस्कृतिक बाजारीकरण के प्रभाव में इस जाति की परंपरागत भूमिका कमजोर हुई है। इस अ/ययन के मा/यम से यह स्पष्ट होता है कि लोकपरंपराओं के संरक्षण हेतु ढोली जाति जैसी सांस्कृतिक इकाइयों का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है।
शब्दकोशः शोध प्रबंध, लोकसांस्कृतिक परंपरा, सामाजिक वर्गीकरण, ग्रामीण समाज, मौखिक परंपरा।