यह शोध-पत्र हिंदी दलित साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर ओमप्रकाश वाल्मीकि की काव्य चेतना का विश्लेषण करता है, विशेषकर ‘सदियों के संताप’ के संदर्भ में। वाल्मीकि की कविताएं केवल भावनात्मक प्रतिक्रियाएं नहीं, बल्कि जातिवादी सामाजिक ढांचे के विरुद्ध एक संगठित विद्रोह हैं। इस अ/ययन का मुख्य उद्देश्य उनकी कविता में निहित दलित चेतना, ऐतिहासिक उत्पीड़न, आत्मसम्मान की आकांक्षा, और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण के बिंदुओं को उद्घाटित करना है। शोध में यह पाया गया कि ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताएं समाज में व्याप्त वर्ण-आधारित विषमता को चुनौती देती हैं। उनकी भाषा में विद्रोह है, उनकी शैली में अनुभव की प्रमाणिकता है, और उनके कथ्य में सामाजिक न्याय की पुकार है। ‘सदियों के संताप’ उनके काव्य का एक केंद्रीय प्रतीक है, जो दलित समाज की पीढ़ियों से चली आ रही मानसिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पीड़ा को स्वर देता है। उनकी रचनाओं में प्रयुक्त प्रतीकात्मकता, मिथकों की पुनर्व्याख्या और यथार्थ की धारदार प्रस्तुति, उन्हें समकालीन हिंदी काव्य के विशिष्ट कवि के रूप में स्थापित करती है। इस शोध के मा/यम से यह स्पष्ट होता है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि का काव्य साहित्य न केवल दलित अनुभवों का प्रतिबिंब है, बल्कि वह सामाजिक परिवर्तन की एक सशक्त प्रेरणा भी है।
शब्दकोशः दलित चेतना, संताप, भावनात्मक,सांस्कृतिक, आत्मसम्मान, सामाजिक न्याय, अनुभव, प्रतीक, पुनर्व्याख्या, समकालीन, आलोचनात्मक, सौंदर्यात्मक, अनुभव, प्रतिबिम्ब, परिवर्तन।