किसी भी राष्ट्र की प्रगति उसके नागरिकों पर निर्भर करती है। मानव-संसाधन के विकास में शिक्षा को सदैव ही अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है। वस्तुतः शिक्षा किसी भी समुदाय के विकास का एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन है। यही कारण है कि भारतीय समाज में जन सामान्य के साथ-साथ निर्बल वर्गों की शिक्षा का भी विशेष /यान दिया गया जिससे समाज के निर्बल वर्ग का भी चहुँमुखी विकास हो सके तथा वह राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दे सके। निर्बल वर्ग से तात्पर्य समाज के उन व्यक्तियों से है जो सामाजिक, आर्थिक अथवा धार्मिक परिस्थिति के कारण उन्न्ति नहीं कर सके। हमारे देश का सामाजिक ढाँचा जन्मप्रदत्त जातियों पर आधारित है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र की उच्चांे क्रम की वर्णव्यवस्था में शूद्र साधनहीन, शक्तिहीन, धनहीन तथा प्रतिष्ठाहीन थे। अन्य वर्गो ने इन्हें अस्पृश्य मान लिया तथा शताब्दियों तक इनका शोषण करते रहे। शूद्रों को शिक्षा के अधिकार से वंचित कर दिया गया। स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान सामाजिक, राजनीतिक चेतना ने निर्बल वर्गों की स्थिति को काफी प्रभावित किया है। सामाजिक रूढियों में परिवर्तन आया तथा प्रगतिशीलता के कारण समाज के चिंतन में उदारीकरण का प्रादुर्भाव हुआ। ईसाई मिशनरियों ने धर्म-प्रचार हेतु हिन्दु-समाज के निम्न वर्ग में घुसपैठ करने के लिए शिक्षा का सहारा लिया। समाज की मुख्यधारा से कटे दलितों तथा निर्बल वर्ग की स्थिति को समझकर राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं में उन्हें प्रवेश दिया। शिक्षा सामाजिक संतुलन लाने का एक महत्वपूर्ण साधन है इसलिए निर्बल वर्ग के उत्थान के लिये शैक्षिक कार्यक्रम को अधिक महत्व दिया गया।
शब्दकोशः शिक्षक प्रशिक्षण, सामाजिक स्वतंत्रता, मानव-संसाधन, राष्ट्रीय शिक्षा संस्था, शैक्षिक कार्यक्रम।