मनुष्य का अस्तित्व केवल उसकी जैविक सत्ता तक सीमित नहीं है, अपितु वह संवेदनशील, विचारशील तथा सामाजिक प्राणी भी है। उसकी वास्तविक पहचान उसकी मानवता में निहित है, जिसके अंतर्गत करुणा, प्रेम, सहयोग, सहिष्णुता एवं परोपकार जैसे मानवीय मूल्य अंतर्भूत रहते हैं। यही मूल्य मनुष्य को अन्य प्राणियों से भिन्न करते हैं और समाज को नैतिक आधार प्रदान करते हैं। हिंदी साहित्य ने प्राचीन काल से ही मानवता को अपनी चिंतनधारा एवं अभिव्यक्ति का केंद्र बनाया है। ऋग्वेद और उपनिषदों में सत्य, धर्म तथा अहिंसा के आदर्शों के माध्यम से मानवता का स्वरूप प्रतिपादित हुआ। रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों में लोककल्याण, त्याग और धर्मसंकटों के चित्रण से मानवता के विविध आयाम उद्घाटित हुए। संत साहित्य ने जातिगत भेदभाव एवं सामाजिक विषमता का विरोध करते हुए प्रेम, करुणा और परहित को मानवता का मूल आधार स्वीकार किया। कबीर, तुलसी, सूरदास और गुरु नानक ने सार्वभौमिक दृष्टिकोण से मानवता की परिभाषा प्रस्तुत की। आधुनिक हिंदी साहित्य में मानवता का स्वरूप और भी व्यापक रूप में प्रकट हुआ। प्रेमचंद ने शोषित वर्ग की पीड़ा को मार्मिक ढंग से चित्रित किया, दिनकर ने राष्ट्रीयता एवं मानवता का समन्वय किया, महादेवी वर्मा ने करुणा और संवेदना को काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी तथा नागार्जुन और मुक्तिबोध ने अन्याय एवं शोषण के विरुद्ध संघर्ष को मानवता का अविभाज्य अंग माना। विज्ञान एवं भौतिकवाद ने जीवन को सहज और सुविधापूर्ण बनाया, तथापि उन्होंने मानवीय मूल्यों के समक्ष गंभीर संकट उपस्थित कर दिया। युद्ध, आतंकवाद, उपभोक्तावाद और पर्यावरण-समस्या जैसी चुनौतियाँ आज मानवता के अस्तित्व को असंतुलित कर रही हैं। ऐसे समय में हिंदी साहित्य न केवल मानवीय संवेदनाओं की रक्षा करता है, बल्कि मानवता की पुनर्स्थापना का समर्थ साधन भी सिद्ध होता है।
शब्दकोशः मानव, मानवता, करुणा, प्रेम, हिंदी साहित्य, प्राचीन साहित्य, आधुनिक साहित्य, सामाजिक न्याय, लोकतांत्रिक चेतना, मानवाधिकार, विज्ञान, भौतिकवाद।