भारत के राजनीतिक और दार्शनिक चिंतन में पण्डित दीनदयाल उपाध्याय का स्थान अत्यंत विशिष्ट और महत्वपूर्ण है। उन्होंने भारतीय संस्कृति, परंपरा और मानवीय मूल्यों पर आधारित राजनीति का एक वैकल्पिक दर्शन प्रस्तुत किया, जिसे उन्होंने “’’एकात्म मानववाद’’” नाम दिया। यह सिद्धांत भारतीय जीवनदृष्टि का दार्शनिक आधार है, जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के समन्वय पर बल देता है। पण्डित उपाध्याय का मानना था कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति केवल आर्थिक या औद्योगिक विकास से नहीं, बल्कि उस राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना और नैतिक मूल्यों की दृढ़ता से सुनिश्चित होती है। उनके राजनीतिक चिंतन का मूल उद्देश्य एक ऐसी व्यवस्था की स्थापना करना था, जो मानव जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक पक्षों में संतुलन स्थापित कर सके। उन्होंने पश्चिमी राजनीतिक विचारधाराओं पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों की सीमाओं को स्पष्ट करते हुए कहा कि भारत को अपनी स्वदेशी सोच के अनुरूप, सांस्कृतिक और नैतिक दृष्टि से प्रेरित राजनीतिक ढाँचा अपनाना चाहिए। उनके अनुसार राजनीति का उद्देश्य केवल शासन करना नहीं, बल्कि समाज की सेवा और जनकल्याण सुनिश्चित करना है। दीनदयाल उपाध्याय ने भारतीय राजनीति में “’’सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’’”, “’’स्वदेशी अर्थनीति’’” और “’’सामाजिक समरसता’’” जैसे विचारों को केंद्रीय स्थान दिया। उन्होंने राजनीतिक संगठन को भी एक सांस्कृतिक साधना के रूप में देखा और जनसंघ के माध्यम से राजनीति में मूल्याधारित आचरण की स्थापना का प्रयास किया। उनका चिंतन आज भी भारतीय लोकतंत्र के लिए प्रासंगिक है, क्योंकि यह समावेशी विकास, नैतिक राजनीति और आत्मनिर्भरता की राह सुझाता है।
शब्दकोशः पण्डित दीनदयाल उपाध्याय, राजनीतिक चिंतन, एकात्म मानववाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, स्वदेशी अर्थनीति, सामाजिक समरसता, भारतीय संस्कृति, नैतिक राजनीति।