यह शोध पत्र इस बात की पड़ताल करता है कि कैसे औपनिवेशिक शासन के दबाव के बीच भारतीय संस्कृति ने न केवल अपने अस्तित्व को बनाए रखा, बल्कि उसी संघर्ष से राष्ट्रीय चेतना और आत्मसम्मान का उदय हुआ। ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज की जड़ों को कमज़ोर करने के लिए शिक्षा, प्रशासन और सांस्कृतिक व्यवस्था में अनेक परिवर्तन किए, जिनका उद्देश्य भारतीय सोच और पहचान को प्रभावित करना था। फिर भी, भारत की गहरी सांस्कृतिक परंपरा और जीवनदृष्टि ने इस प्रभाव को आत्मसात करते हुए अपने मूल स्वरूप को पुनः परिभाषित किया। इस दौर में भारतीय समाज ने अपने धर्म, भाषा, दर्शन और नैतिक मूल्यों के माध्यम से आत्मचेतना को पुनर्जीवित किया। राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी जैसे विचारकों और समाज-सुधारकों ने भारतीयता के उस भाव को नई दिशा दी जिसने स्वतंत्रता आंदोलन की वैचारिक भूमि तैयार की। यह शोध इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि औपनिवेशिक काल भारतीय आत्मा के दमन का नहीं, बल्कि उसके पुनर्जागरण का काल साबित हुआ - जहाँ सांस्कृतिक संघर्षों के बीच आत्मगौरव और राष्ट्रभाव की नई धारा प्रवाहित हुई।
शब्दकोशः भारतीय संस्कृति, औपनिवेशिक शासन, राष्ट्रीय चेतना, आत्मसम्मान, सांस्कृतिक पुनर्जागरण, स्वतंत्रता आंदोलन, भारतीय अस्मिता, स्वदेशी विचारधारा, सामाजिक सुधार, भारतीय पुनर्जागरण।।
Article DOI: 10.62823/IJEMMASSS/7.3(III).8241